आह!!!
एक ख्वाहिश थी - इस नाचीज़ की ग़ज़ल को जगजीत सा'ब अपनी आवाज़ बख्श दें. जो
अब हमेशा- हमेशा के लिए अधूरी रह गयी. पिछले 8 साल पहले उनके नाम एक ख़त
लिखा था, जो मैं पोस्ट भी न कर सका.. आज भी वो ख़त ज्यों
का त्यों मेरे पास मौजूद
है. मगर अफ़सोस अब उस ख़त को पढने वाला ही नहीं रहा.. एक टीस रह गयी दिल में. काश वो ख़त पोस्ट किया होता. खुद ग़म में रहकर हमें अपनी ग़ज़लों से जिंदा रखा आज वही नहीं है.
अब और नहीं लिखा जा रहा है. आँखों में नमी आ गयी. वो मखमली आवाज़ और वो हमेशा यूँ ही जिंदा रहेंगे
जैसे पहले थे.
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वो कौन है दुनिया में जिसे ग़म नहीं होता..
किस घर में ख़ुशी होती है मातम नहीं होता.
वो कौन है दुनिया में जिसे ग़म नहीं होता..
किस घर में ख़ुशी होती है मातम नहीं होता.
- मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी'
10.10.2011, '8'
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