Thursday, May 8, 2014

कलम के जेहन से - सम्पादकीय

यकीन नहीं आता , विश्वाश नहीं होता की आज हम उसी भारत वर्ष में रह रहे हैं जो परम्परा और संस्कारों के लिए विख्यात है। पिछले दिनों एक बड़ी घटना प्रकाश में आयी। मुंबई का एक व्यक्ति अमीर बनने के लालच में अपनी ही बेटी की अस्मत से खेलता रहा। एक तांत्रिक के कहने पर लगातार वो ऐसा करता रहा। वो तो शुक्र है उस भले मानुस का जिसने इन्टरनेट के जरिये उसकी छोटी बेटी को समझाने दुनिया के सामने अपनी बात रखने का हौसला दिया।
इंसान दुनिया के किसी भी कोने में रहे मगर जब भी वो अपने घर के दरवाजे के अन्दर आता है उसे सुरक्षित होने का अहसास होता है। मगर ये दो बेटियाँ अपने ही घर की चारदीवारी में लुटती रहीं। अफ़सोस तो तब होता है जब पता चलता है इस घिनोने काम को अंजाम देने में उसकी माँ भी शामिल थी। एक माँ जो बेटी को नौ माह पेट में रखती है ,कैसे कैसे दर्द सहती है। जब पुरी दुनिया किनारा कर ले ऐसे में एक लड़की अपना आखिरी सहारा माँ का ही लेती है। उसी से अपना दर्द बाँटती है। मगर यहाँ तो मंजर ही कुछ और था। मार डालो ऐसी माँ को।
यहाँ रिश्ते शर्मशार तो हुए ही , उनके मायने ही बदल गए। हम अफ़सोस ही कर सकते हैं ,रो सकते हैं और कुछ भी नहीं। ऐसी कोई एक घटना नहीं। कई घटनाएँ हैं जो संस्कारों को नीलम कर रही हैं और हम सिर्फ़ कहकहे लगा रहे हैं।
शर्म कर ऐ भारतवासी - शर्म कर
कहाँ मर गया तेरा दिल , कहाँ मर गए तेरे संस्कार, कहाँ मर गए तेरे आसमानों से ऊँचे विचार। गुस्सा का आलम तो ये है - यूं. एस. ऐ. में बसे मेरे एक मित्र का घटना पर कहना था - हमारे ऊपर कोई एक ऐसा विस्फोट क्यों नहीं हो जाता की हम सब मर जाएँ।
और हमारी सरकार "जय हो" का नारा देती है तो उसका जवाब "भय हो " से दे दिया जाता है। और एक आम आदमी महज आम आदमी ही बना रह जाता है। देश को चलने वाले वोट बैंक की राजनीती में उलझे रहते हैं और देश की तरक्की दूर -दूर तक नज़र नहीं आती।
कब तक हम इस झूटी शान पे जीते रहें - की हम सबसे बड़े लोकतंत्र के वासी हैं। कभी ये ख्याल आ ही जाता है की कोई तानाशाह आए और देश के दगा बाजों को ख़त्म कर दे। हमें हमारा प्यारा भारत वर्ष वापस कर दे।
इसी उद्धरण में "मशाल" साहब की कविता प्रकाशित कर रहा हूँ।
"नई कलम -उभरते हस्ताक्षर" को आपका प्यार मिल रहा है। हमारा सहयोग करें। हमें आपकी प्रतिक्रियाओं और आपकी उपस्तिथि का इंतजार रहेगा। और एक बात जल्दी ही पंकज सुबीर जी हमारे मेहमान होंगे। 

-शाहिद "अजनबी"

28.03.09, '3'

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